इलेक्टोरल बांड, जिन्हें चुनावी बांड भी कहा जाता है, भारत में चुनाव
वित्तपोषण का एक तरीका है। इन्हें 2017 में वित्तीय अधिनियम में संशोधन
करके पेश किया गया था। बांड भारतीय स्टेट बैंक द्वारा जारी किए जाते हैं और
केवल राजनीतिक दलों को दान के लिए उपयोग किए जा सकते हैं।
कार्यप्रणाली
- इलेक्टोरल बांड ₹1,000, ₹10,000, ₹1 लाख, ₹10 लाख और ₹1 करोड़ के मूल्यवर्ग में उपलब्ध हैं।
- कोई भी व्यक्ति या संस्था इन बांडों को खरीद सकता है और उन्हें किसी भी पंजीकृत राजनीतिक दल को दान कर सकता है।
- बांड खरीदने वाले को अपनी पहचान का खुलासा करना होता है, लेकिन दान करने वाले को गुमनाम रहने का विकल्प होता है।
- दान प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल को बांड को बैंक में जमा करना होता है और चुनाव आयोग को दान की जानकारी देनी होती है।
उद्देश्य
इलेक्टोरल बांड को चुनाव वित्तपोषण में पारदर्शिता लाने के लिए पेश किया
गया था। सरकार का तर्क था कि यह योजना अज्ञात स्रोतों से धन के प्रवाह को
कम करेगी और राजनीतिक दलों को अधिक जवाबदेह बनाएगी।
विवाद
इलेक्टोरल बांड योजना की शुरुआत से ही इसकी आलोचना की जाती रही है। आलोचकों का तर्क है कि यह योजना:
- दान करने वालों की गुमनामी को बढ़ावा देती है, जिससे राजनीतिक दलों पर कॉर्पोरेट और अन्य शक्तिशाली हितधारकों का प्रभाव बढ़ जाता है।
- चुनाव वित्तपोषण में पारदर्शिता लाने में विफल रही है।
- काले धन को चुनावी प्रक्रिया में प्रवेश करने में मदद करती है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
15 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बांड योजना को असंवैधानिक
घोषित कर दिया। अदालत ने कहा कि यह योजना चुनावों में धन के प्रवाह में
पारदर्शिता और जवाबदेही को कम करती है।
निष्कर्ष
इलेक्टोरल बांड योजना भारत में चुनाव वित्तपोषण का एक विवादास्पद तरीका
रहा है। इसकी आलोचना दान करने वालों की गुमनामी को बढ़ावा देने और चुनाव
वित्तपोषण में पारदर्शिता लाने में विफल रहने के लिए की गई है। सुप्रीम
कोर्ट ने 2024 में इस योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया।