अक्षय ऊर्जा एल्युमीनियम उद्योग से 49 प्रतिशत उत्सर्जन को दूर कर सकती है : सीईईडब्ल्यू:

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नई दिल्ली । भारतीय एल्युमीनियम उद्योग को नेट-जीरो कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य को पाने के लिए 2.2 लाख करोड़ रुपये (लगभग 29 बिलियन अमेरिकी डॉलर*) की अतिरिक्त पूंजीगत लागत (कैपेक्स) की जरूरत होगी। यह जानकारी काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के एक स्वतंत्र अध्ययन से सामने आई है। इसके अलावा अक्षय ऊर्जा से मिलने वाली बिजली उद्योग से होने वाले कुल उत्सर्जन के 49 प्रतिशत हिस्से को घटा सकती है। वर्तमान समय में पूरी तरह से अक्षय ऊर्जा की तरफ जाना संभव नहीं है, क्योंकि इससे लगातार बिजली का उत्पादन नहीं होता है और ग्रिड फेल होने की स्थिति में वैकल्पिक स्रोत की भी जरूरत होगी। एल्युमीनियम बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने वाली धातु है और उत्पादन के लिहाज से यह भारत के सबसे तेज बढ़ने वाले क्षेत्रों में से एक है, जिसका ऊर्जा क्षेत्र में काफी इस्तेमाल होता है।     

सीईईडब्ल्यू का अध्ययन, जो इस प्रमुख क्षेत्र को डीकार्बोनाइज करने की लागत का पता लगाने वाला अपनी तरह का पहला अध्ययन है, बताता है कि नेट-जीरो स्थिति में उत्पादित एल्युमीनियम 61 प्रतिशत से ज्यादा महंगा होगा। इस क्षेत्र को कार्बन मुक्त बनाने से परिचालन लागत (ओपेक्स) में सालाना 26,049 करोड़ रुपये (3.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर) की अतिरिक्त वृद्धि होगी।

 भले ही भारत में प्रति व्यक्ति एल्युमीनियम की खपत काफी कम 2.5 किलोग्राम है (वैश्विक औसत 11 किलोग्राम की तुलना में), लेकिन इस उद्योग ने 2019-20 में 77 मिलियन टन कार्बन-डाइऑक्साइड (एमटीसीओटू) का उत्सर्जन किया था। इस क्षेत्र से होने वाले कुल उत्सर्जन का 80 प्रतिशत हिस्सा एल्युमीनियम प्लांट में इस्तेमाल होने वाली बिजली से, जबकि शेष हिस्सा प्रक्रियागत उत्सर्जन और ऊर्जा खपत से आता है। बीपी फंडेंड सीईईडब्ल्यू का यह अध्ययन भारतीय एल्युमीनियम उद्योग के लिए मार्जिनल अबेटमेंट कॉस्ट (मैक) कर्व उपलब्ध कराता है, जो बताता है कि कौन सी तकनीक उद्योग को नेट-जीरो बनने में सहायता कर सकती है और उस पर क्या लागत आएगी।  

हेमंत मल्या, फेलो, सीईईडब्ल्यू, ने कहा, “भारत के कठिन क्षेत्रों (hard-to-abate sectors) के डीकार्बोनाइजेशन के लिए जरूरी सूचनाएं उपलब्ध कराने के प्रयास के तहत, सीईईडब्ल्यू ने सीमेंट, स्टील, उर्वरक और एल्युमीनियम उद्योगों को नेट-जीरो बनाने वाले उपायों पर चार रिपोर्ट तैयार की हैं। इसमें एक बात प्रमुखता से सामने आई है कि इसके लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पूंजी के साथ-साथ समाधान उपलब्ध कराने वाले अक्षय ऊर्जा, वैकल्पिक ईंधन और कार्बन भंडारण व उपयोग जैसे क्षेत्रों को विस्तार देने की आवश्यकता है। एल्युमीनियम और उर्वरक भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरी उद्योग हैं। इन्हें डीकार्बोनाइज करने और भारत के जलवायु लक्ष्यों पाने के लिए पॉवर ग्रिड और पाइपलाइन जैसे आवश्यक बुनियादी ढांचे के निर्माण में सरकार से पर्याप्त सहायता की भी जरूरत होगी।”

शशि मुकुंदन, अध्यक्ष, बीपी इंडिया और वरिष्ठ उपाध्यक्ष, बीपी ग्रुप, ने कहा, “आठ प्रतिशत से ज्यादा के आर्थिक विकास पथ के साथ, भारतीय उद्योग अभूतपूर्व विकास संभावनाएं देख रहा है। यह विकास जिम्मेदारीपूर्ण तरीके से होना चाहिए, ताकि आर्थिक प्रगति का जलवायु प्रभावों को घटाने के साथ संतुलन बना रहे। यह उन कठिन क्षेत्रों के लिए चुनौतीपूर्ण है, जिनमें हमें कम या शून्य-कार्बन उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों की जरूरत है। सीईईडब्ल्यू के साथ बीपी की साझेदारी इन कठिन क्षेत्रों के लिए कम कार्बन उत्सर्जन वाले विकल्पों को सर्वाधिक अनुकूल बनाने पर केंद्रित है।”

सीईईडब्ल्यू के अध्ययन में पाया गया है कि एल्यूमिना (एल्युमीनियम ऑक्साइड) की रिफाइनिंग और एल्युमीनियम को गलाने में ऊर्जा कुशलता लाकर और इलेक्ट्रोलिसिस ऑफ-गैस के माध्यम से व्यर्थ हो जाने वाले ताप को दोबारा प्राप्त करके एल्युमीनियम की लागत बढ़ाए बगैर उत्सर्जन को घटाया जा सकता है। लेकिन इन प्रौद्योकियों से कुल उत्सर्जन का केवल 8 प्रतिशत हिस्सा ही कम हो सकता है। कार्बन उत्सर्जन घटाने के अन्य सभी उपायों जैसे अक्षय ऊर्जा और कार्बन कैप्चर को इस्तेमाल करने का मैक कर्व पॉजिटिव है, जिसका मतलब है कि इन उपायों को लागू करने वाली सुविधाएं बनाने पर एक लागत आती है।

दीपक यादव, प्रोग्राम लीड, सीईईडब्ल्यू ने कहा, “अत्यधिक ऊर्जा-गहनता वाली एल्युमीनियम उत्पादन प्रक्रिया और मांग में अपेक्षित वृद्धि को देखते हुए, इस क्षेत्र को डीकार्बोनाइज करने का भारत के संपूर्ण औद्योगिक उत्सर्जन पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। हमने अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने का सुझाव दिया है, क्योंकि एल्युमीनियम को गलाने वाले ज्यादातर संयंत्र पूर्वी राज्यों में स्थित हैं, जो पवन ऊर्जा क्षमता के लिहाज से उपयुक्त नहीं हैं। इसके अलावा, डीकार्बोनाइजेशन के उपायों से जुड़े आंकड़े और साक्ष्यों को जुटाने के लिए एक शोध एवं विकास (आरएंडडी) इकोसिस्टम बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अंत में, भारत सरकार को कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) इकोसिस्टम बनाने के लिए अनुकूल नीतियां तैयार करनी चाहिए।”

कार्बन उत्सर्जन को घटाने के लिहाज से कठिन माने वाले क्षेत्रों पर अपनी सीरीज को आगे बढ़ाते हुए, सीईईडब्ल्यू ने उर्वरक उद्योग को नेट-जीरो बनाने वाले उपायों पर भी एक अध्ययन जारी किया है। भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उर्वरक उत्पादक देश है, जो लगभग 20 प्रतिशत वैश्विक उत्पादन करता है। लेकिन ऊर्जा-गहन उत्पादन प्रक्रियाओं और जीवाश्म ईंधन, विशेष तौर पर प्राकृतिक गैस, के व्यापक उपयोग के कारण यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (सालाना लगभग 25 मिलियन टन कार्बन डाई-ऑक्साइड) का एक प्रमुख स्रोत है।

जैसा कि उर्वरक के उत्पादन में बहुत ज्यादा बिजली की जरूरत नहीं होती है, सीईईडब्ल्यू के अध्ययन में सामने आया है कि अक्षय ऊर्जा आधारित बिजली के इस्तेमाल से उत्सर्जन में सिर्फ 2 प्रतिशत की कमी आएगी। अमोनिया (यूरिया) उत्पादन, इस क्षेत्र में कुल उत्सर्जन के लगभग 95 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार है, इसलिए, ग्रे अमोनिया की जगह पर ग्रीन अमोनिया को अपनाने से उत्सर्जन में 151 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इसका परिणाम इस क्षेत्र के लिए  नेट-निगेटिव उत्सर्जन के रूप में साने आएगा। सबसे अंत में, उद्योग कार्बन कैप्चर एंड सीक्वेस्ट्रेशन (सीसीएस), कार्बन कैप्चर एंड यूटिलाइजेशन (सीसीयू) और वनीकरण जैसे कार्बन प्रबंधन के विकल्पों को अपना सकते हैं।


नई दिल्ली । भारतीय एल्युमीनियम उद्योग को नेट-जीरो कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य को पाने के लिए 2.2 लाख करोड़ रुपये (लगभग 29 बिलियन अमेरिकी डॉलर*) की अतिरिक्त पूंजीगत लागत (कैपेक्स) की जरूरत होगी। यह जानकारी काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के एक स्वतंत्र अध्ययन से सामने आई है। इसके अलावा अक्षय ऊर्जा से मिलने वाली बिजली उद्योग से होने वाले कुल उत्सर्जन के 49 प्रतिशत हिस्से को घटा सकती है। वर्तमान समय में पूरी तरह से अक्षय ऊर्जा की तरफ जाना संभव नहीं है, क्योंकि इससे लगातार बिजली का उत्पादन नहीं होता है और ग्रिड फेल होने की स्थिति में वैकल्पिक स्रोत की भी जरूरत होगी। एल्युमीनियम बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने वाली धातु है और उत्पादन के लिहाज से यह भारत के सबसे तेज बढ़ने वाले क्षेत्रों में से एक है, जिसका ऊर्जा क्षेत्र में काफी इस्तेमाल होता है।     

सीईईडब्ल्यू का अध्ययन, जो इस प्रमुख क्षेत्र को डीकार्बोनाइज करने की लागत का पता लगाने वाला अपनी तरह का पहला अध्ययन है, बताता है कि नेट-जीरो स्थिति में उत्पादित एल्युमीनियम 61 प्रतिशत से ज्यादा महंगा होगा। इस क्षेत्र को कार्बन मुक्त बनाने से परिचालन लागत (ओपेक्स) में सालाना 26,049 करोड़ रुपये (3.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर) की अतिरिक्त वृद्धि होगी।

 भले ही भारत में प्रति व्यक्ति एल्युमीनियम की खपत काफी कम 2.5 किलोग्राम है (वैश्विक औसत 11 किलोग्राम की तुलना में), लेकिन इस उद्योग ने 2019-20 में 77 मिलियन टन कार्बन-डाइऑक्साइड (एमटीसीओटू) का उत्सर्जन किया था। इस क्षेत्र से होने वाले कुल उत्सर्जन का 80 प्रतिशत हिस्सा एल्युमीनियम प्लांट में इस्तेमाल होने वाली बिजली से, जबकि शेष हिस्सा प्रक्रियागत उत्सर्जन और ऊर्जा खपत से आता है। बीपी फंडेंड सीईईडब्ल्यू का यह अध्ययन भारतीय एल्युमीनियम उद्योग के लिए मार्जिनल अबेटमेंट कॉस्ट (मैक) कर्व उपलब्ध कराता है, जो बताता है कि कौन सी तकनीक उद्योग को नेट-जीरो बनने में सहायता कर सकती है और उस पर क्या लागत आएगी।  

हेमंत मल्या, फेलो, सीईईडब्ल्यू, ने कहा, “भारत के कठिन क्षेत्रों (hard-to-abate sectors) के डीकार्बोनाइजेशन के लिए जरूरी सूचनाएं उपलब्ध कराने के प्रयास के तहत, सीईईडब्ल्यू ने सीमेंट, स्टील, उर्वरक और एल्युमीनियम उद्योगों को नेट-जीरो बनाने वाले उपायों पर चार रिपोर्ट तैयार की हैं। इसमें एक बात प्रमुखता से सामने आई है कि इसके लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पूंजी के साथ-साथ समाधान उपलब्ध कराने वाले अक्षय ऊर्जा, वैकल्पिक ईंधन और कार्बन भंडारण व उपयोग जैसे क्षेत्रों को विस्तार देने की आवश्यकता है। एल्युमीनियम और उर्वरक भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरी उद्योग हैं। इन्हें डीकार्बोनाइज करने और भारत के जलवायु लक्ष्यों पाने के लिए पॉवर ग्रिड और पाइपलाइन जैसे आवश्यक बुनियादी ढांचे के निर्माण में सरकार से पर्याप्त सहायता की भी जरूरत होगी।”

शशि मुकुंदन, अध्यक्ष, बीपी इंडिया और वरिष्ठ उपाध्यक्ष, बीपी ग्रुप, ने कहा, “आठ प्रतिशत से ज्यादा के आर्थिक विकास पथ के साथ, भारतीय उद्योग अभूतपूर्व विकास संभावनाएं देख रहा है। यह विकास जिम्मेदारीपूर्ण तरीके से होना चाहिए, ताकि आर्थिक प्रगति का जलवायु प्रभावों को घटाने के साथ संतुलन बना रहे। यह उन कठिन क्षेत्रों के लिए चुनौतीपूर्ण है, जिनमें हमें कम या शून्य-कार्बन उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों की जरूरत है। सीईईडब्ल्यू के साथ बीपी की साझेदारी इन कठिन क्षेत्रों के लिए कम कार्बन उत्सर्जन वाले विकल्पों को सर्वाधिक अनुकूल बनाने पर केंद्रित है।”

सीईईडब्ल्यू के अध्ययन में पाया गया है कि एल्यूमिना (एल्युमीनियम ऑक्साइड) की रिफाइनिंग और एल्युमीनियम को गलाने में ऊर्जा कुशलता लाकर और इलेक्ट्रोलिसिस ऑफ-गैस के माध्यम से व्यर्थ हो जाने वाले ताप को दोबारा प्राप्त करके एल्युमीनियम की लागत बढ़ाए बगैर उत्सर्जन को घटाया जा सकता है। लेकिन इन प्रौद्योकियों से कुल उत्सर्जन का केवल 8 प्रतिशत हिस्सा ही कम हो सकता है। कार्बन उत्सर्जन घटाने के अन्य सभी उपायों जैसे अक्षय ऊर्जा और कार्बन कैप्चर को इस्तेमाल करने का मैक कर्व पॉजिटिव है, जिसका मतलब है कि इन उपायों को लागू करने वाली सुविधाएं बनाने पर एक लागत आती है।

दीपक यादव, प्रोग्राम लीड, सीईईडब्ल्यू ने कहा, “अत्यधिक ऊर्जा-गहनता वाली एल्युमीनियम उत्पादन प्रक्रिया और मांग में अपेक्षित वृद्धि को देखते हुए, इस क्षेत्र को डीकार्बोनाइज करने का भारत के संपूर्ण औद्योगिक उत्सर्जन पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। हमने अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने का सुझाव दिया है, क्योंकि एल्युमीनियम को गलाने वाले ज्यादातर संयंत्र पूर्वी राज्यों में स्थित हैं, जो पवन ऊर्जा क्षमता के लिहाज से उपयुक्त नहीं हैं। इसके अलावा, डीकार्बोनाइजेशन के उपायों से जुड़े आंकड़े और साक्ष्यों को जुटाने के लिए एक शोध एवं विकास (आरएंडडी) इकोसिस्टम बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अंत में, भारत सरकार को कार्बन कैप्चर, यूटिलाइजेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) इकोसिस्टम बनाने के लिए अनुकूल नीतियां तैयार करनी चाहिए।”

कार्बन उत्सर्जन को घटाने के लिहाज से कठिन माने वाले क्षेत्रों पर अपनी सीरीज को आगे बढ़ाते हुए, सीईईडब्ल्यू ने उर्वरक उद्योग को नेट-जीरो बनाने वाले उपायों पर भी एक अध्ययन जारी किया है। भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उर्वरक उत्पादक देश है, जो लगभग 20 प्रतिशत वैश्विक उत्पादन करता है। लेकिन ऊर्जा-गहन उत्पादन प्रक्रियाओं और जीवाश्म ईंधन, विशेष तौर पर प्राकृतिक गैस, के व्यापक उपयोग के कारण यह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (सालाना लगभग 25 मिलियन टन कार्बन डाई-ऑक्साइड) का एक प्रमुख स्रोत है।

जैसा कि उर्वरक के उत्पादन में बहुत ज्यादा बिजली की जरूरत नहीं होती है, सीईईडब्ल्यू के अध्ययन में सामने आया है कि अक्षय ऊर्जा आधारित बिजली के इस्तेमाल से उत्सर्जन में सिर्फ 2 प्रतिशत की कमी आएगी। अमोनिया (यूरिया) उत्पादन, इस क्षेत्र में कुल उत्सर्जन के लगभग 95 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार है, इसलिए, ग्रे अमोनिया की जगह पर ग्रीन अमोनिया को अपनाने से उत्सर्जन में 151 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इसका परिणाम इस क्षेत्र के लिए  नेट-निगेटिव उत्सर्जन के रूप में साने आएगा। सबसे अंत में, उद्योग कार्बन कैप्चर एंड सीक्वेस्ट्रेशन (सीसीएस), कार्बन कैप्चर एंड यूटिलाइजेशन (सीसीयू) और वनीकरण जैसे कार्बन प्रबंधन के विकल्पों को अपना सकते हैं।


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