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0 post authorJournalist खबरीलाल Monday ,November 01,2021

दीपोत्सव पर चिंतन आलेख - परंपरा बचायें मिट्टी के दीया जलायें:

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छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहली बार  छत्तीसगढ़ के त्यौहारों को महत्व देने का कार्य सरकार द्वारा किया जा रहा है।  दीपावली पर्व में मिट्टी के दीये का उपयोग बढ़ाने के लिए अभूतपूर्व पहल की गई है। कुम्हार एवं अन्य ग्रामीणों द्वारा बनाये गये मिट्टी के दीये के विक्रय हेतु सम्पूर्ण सुविधा के साथ ही उनसे  कर की वसूली नहीं किये जाने के निर्देश सरकार के द्वारा जारी किये गये है। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय‘ को साकार करने की दृष्टि से  यह फैसला ऐतिहासिक और नमन योग्य है।  छत्तीसगढ़ के तीज त्यौहार, परम्परा के साथ ही मिट्टी का मान बढ़ाने की यह अनूठी पहल इस बात की साक्षी है कि मिट्टी, पानी और बयार जीवन के हैं ये आधार।

सृष्टि में जितने भी प्राणी है उन सभी का प्रत्यक्ष संबंध मिट्टी से हवा, पानी की तरह जुड़ा है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त मिट्टी से निर्मित वस्तुओं को मनुष्य अपनी दैनिक दिनचर्या में षामिल करता है। मिट्टी से निर्मित सामग्रियों का उपयोग अनादिकाल से लेकर अत्याधुनिकता की जीवनषैली में जी रहा मनुष्य आज भी कर रहा है। मिट्टी के घड़े और सुराही के सामने नवीनतम तकनीकी से युक्त फ्रीज का दर्जा सदैव नीचे ही दिखाई देता है। यही वजह है कि ग्रीष्मकाल के आते ही जिस तरह से मिट्टी से निर्मित मटको की मांग बढ़ जाती है उसी तरह दीपोत्सव पर्व में मिट्टी से निर्मित दीये की पूछ परख बढ़ जाती है।

मिट्टी के दीये के बिना दीपोत्सव की कल्पना नहीं की जा सकती। इंद्रधनुष की भांति रंग-बिरंगे विद्युत चलित झालर, विविध आकर्षक आकार की मोमबत्ती बाजार में उपलब्ध है पर पारम्परिक दीयों की हवा में झिलमिलाती ज्योति को देखकर ही दीप पर्व की पवित्रता का बोध होता है। मिट्टी के दियों के बिना दीपावली की दषा बिन पानी की नदिया की भांति हो जायेंगी।

मिट्टी के दीये बनाने का काम करने वाले समाज के लोग कुम्हार और कुम्भकार कहलाते है। ये इनका पुष्तैनी पेषा है। कुम्हार लोग मिट्टी के दीये के साथ-साथ लक्ष्मी, गणेष, सरस्वती, दुर्गा की मूर्ति तरह-तरह के खिलौने बनाते हैं। आटे की भांति मिट्टी को गूंथना और गुंथी हुई मिट्टी से चुटकी बजाते विविध वस्तुओं का निर्माण कर देना इनके बांये हाथ का खेल है। आम आदमी गूंथे हुए आटे से सही आकार में रोटियां नहीं निर्मित कर पाता, पर कुम्हार समाज के छोटे बच्चे भी मिट्टी से मनमाफिक वस्तुओं को आकार देने में माहिर होते हैं।

2. यद्यपि बदलते हुए वक्त की चपेट में कुम्हार समाज और मिट्टी की कला भी गुम होती नजर आती है। दरअसल महंगे कोयला, भूसा, पानी, मिट्टी और पसीना बहाते परिश्रम से निर्मित वस्तुओं के वाजिब दाम ग्राहकों से ले पाना कुम्हारों के लिए सिरदर्द हो चला है।  आधुनिक बाजार में उपलब्ध सस्ते चायनीज सामानों के सामने पारम्परिक वस्तुओं के प्रति खरीददारों का रूझान कम हो चला है।  कुम्हार का मिट्टी से दूर होना भारतीय परम्परा, संस्कृति और पर्वों से बढ़ती दूरियों का सूचक है। इसे समझते हुये छत्तीसगढ़ में  सरकार ने  कुम्हारों की पीड़ा को हरने और लुप्त होती परम्पराओं को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया है। यह एक अत्यंत ही शुभ संकेत है।  सरकार की ऐसी सोच को सफलता के मुकाम पर पहुंचाने की जिम्मेदारी आमजनों की भी है।   

मिट्टी का दीया मनुष्य को मिट्टी से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करता है। मिट्टी की महिमा को वह उजागर करता है। लेकिन नये जमाने का मनुष्य अपनी पुरानी परम्पराओं, रीति-रिवाजों से  दिन-ब-दिन दूरियां बढ़ाते हुए नीरसता और एकाकीपन के मकड़जाल में फंसता जा रहा है। ऐसे समय में मिट्टी के दीये और विद्युत चलित बल्बों से निर्मित झालर के बीच दीपावली की रात हो रहे संवाद का स्मरण आता है जो कि कुछ इस तरह हैं - ‘दीपावली की रात अपनी खूबसूरती की अकड़ दिखाते हुए झालर ने दीये से कहा - अरे मिट्टी का दीया आज के जमाने में तेरी पूछ परख नाममात्र को रह गई है। आने वाले समय में गांव गली और गरीब की झोपड़ी भी तुझे बाहर का रास्ता दिखा देंगे। मैं शहरों-महलों के साथ -साथ गांव और झोपड़ियों में भी सुशोभित होता नजर आउंगा।

झालर की ऐसी अकड़ भरी बात सुनकर मिट्टी का दीया हल्की सी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए बोला - झालर भाई, अकड़ को इतना पकड़ के मत रखों, क्योंकि इतिहास गवाह है कि अकड़ ने जिसे जकड़ा, उसका अंत बहुत ही बुरा हुआ है। वैसे भी इस बात को मत भूलों कि पूजा के समय, पूजा की थाली में ईष्वर के चरणों में मुझ मिट्टी के दीये को ही जगह मिलती है। यही मेरे लिए सबसे बड़ा मान-सम्मान है। तुम्हारी पूछपरख केवल विशेष अवसरों पर ही होती है। जबकि जन्म से लेकर मृत्यु संस्कार तक मेरा उपयोग मानव समुदाय सदैव पूज्य भाव से करता है।

मिट्टी के दीये की बात को व्यंग भरे अट्टहास से परे झटकते हुए झालर फिर गरजा - कहां पूजा की एक छोटी सी थाली और कहां गगनछूती इमारतों की छतें । बड़े-बड़े और ऊंचे-ऊंचे स्थानों पर मेरा साम्राज्य है। मेरे पसरते पांव को तुम जैसे तुच्छ दीये भला कैसे रोक पायेंगे ? झालर के इस उलाहना भरे बातों को सुन कर बड़ी षालीनता के साथ मिट्टी के दीये ने कहा - बंधु, झूठी शान की पट्टी तुम्हारी आंखों पर पड़ गई है, उसे उतार कर देखों। दुनिया में झूठी शान, घमंड और अहंकार में जीने वालों का विनाश ही हुआ है। इस बात को हमारे वेद, पुराण और बुजुर्गों ने भी हमें बताया है कि याद रखना कि ‘‘अहंकार में तीन गये धन, वैभव और वंष,  न मानो तो देख लो कौरव, रावण और कंस।’’

3. मिट्टी के दीये और झालर के बीच का यह संवाद झूठे शान में जीते मानव समुदाय के गाल पर एक करारा तमाचा है।  इस रात टिमटिमाते हुये हवा, आंधी से डरे बिना घने, घुप अंधकार को चीरने और जन-जन के बीच उजाला फैलाने का काम बेधड़क मिट्टी का दिया करता है। वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए मानव समुदाय को संदेष देता है कि - ‘मिट्टी का एक दिया सारी रात अंधेरे से लड़ता है, तू तो ईष्वर का बनाया हुआ है। हे मनुष्य तू किस बात से डरता है।अंत में एक संकल्प ‘‘चलो मिट्टी के दीये जलायें, प्रकृति, संस्कृति संरक्षण के साथ साथ कुम्हारों की जिंदगी में जगमगाहट लायें। छत्तीसगढ़ की मिट्टी का मान बढ़ाते कहें-

छत्तीसगढ़ की मिट्टी-छत्तीसगढ़ का दीया

छत्तीसगढ़ की खुरमी-छत्तीसगढ़ का मुठिया                                                  ....विजय मिश्रा अमित

 


छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहली बार  छत्तीसगढ़ के त्यौहारों को महत्व देने का कार्य सरकार द्वारा किया जा रहा है।  दीपावली पर्व में मिट्टी के दीये का उपयोग बढ़ाने के लिए अभूतपूर्व पहल की गई है। कुम्हार एवं अन्य ग्रामीणों द्वारा बनाये गये मिट्टी के दीये के विक्रय हेतु सम्पूर्ण सुविधा के साथ ही उनसे  कर की वसूली नहीं किये जाने के निर्देश सरकार के द्वारा जारी किये गये है। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय‘ को साकार करने की दृष्टि से  यह फैसला ऐतिहासिक और नमन योग्य है।  छत्तीसगढ़ के तीज त्यौहार, परम्परा के साथ ही मिट्टी का मान बढ़ाने की यह अनूठी पहल इस बात की साक्षी है कि मिट्टी, पानी और बयार जीवन के हैं ये आधार।

सृष्टि में जितने भी प्राणी है उन सभी का प्रत्यक्ष संबंध मिट्टी से हवा, पानी की तरह जुड़ा है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त मिट्टी से निर्मित वस्तुओं को मनुष्य अपनी दैनिक दिनचर्या में षामिल करता है। मिट्टी से निर्मित सामग्रियों का उपयोग अनादिकाल से लेकर अत्याधुनिकता की जीवनषैली में जी रहा मनुष्य आज भी कर रहा है। मिट्टी के घड़े और सुराही के सामने नवीनतम तकनीकी से युक्त फ्रीज का दर्जा सदैव नीचे ही दिखाई देता है। यही वजह है कि ग्रीष्मकाल के आते ही जिस तरह से मिट्टी से निर्मित मटको की मांग बढ़ जाती है उसी तरह दीपोत्सव पर्व में मिट्टी से निर्मित दीये की पूछ परख बढ़ जाती है।

मिट्टी के दीये के बिना दीपोत्सव की कल्पना नहीं की जा सकती। इंद्रधनुष की भांति रंग-बिरंगे विद्युत चलित झालर, विविध आकर्षक आकार की मोमबत्ती बाजार में उपलब्ध है पर पारम्परिक दीयों की हवा में झिलमिलाती ज्योति को देखकर ही दीप पर्व की पवित्रता का बोध होता है। मिट्टी के दियों के बिना दीपावली की दषा बिन पानी की नदिया की भांति हो जायेंगी।

मिट्टी के दीये बनाने का काम करने वाले समाज के लोग कुम्हार और कुम्भकार कहलाते है। ये इनका पुष्तैनी पेषा है। कुम्हार लोग मिट्टी के दीये के साथ-साथ लक्ष्मी, गणेष, सरस्वती, दुर्गा की मूर्ति तरह-तरह के खिलौने बनाते हैं। आटे की भांति मिट्टी को गूंथना और गुंथी हुई मिट्टी से चुटकी बजाते विविध वस्तुओं का निर्माण कर देना इनके बांये हाथ का खेल है। आम आदमी गूंथे हुए आटे से सही आकार में रोटियां नहीं निर्मित कर पाता, पर कुम्हार समाज के छोटे बच्चे भी मिट्टी से मनमाफिक वस्तुओं को आकार देने में माहिर होते हैं।

2. यद्यपि बदलते हुए वक्त की चपेट में कुम्हार समाज और मिट्टी की कला भी गुम होती नजर आती है। दरअसल महंगे कोयला, भूसा, पानी, मिट्टी और पसीना बहाते परिश्रम से निर्मित वस्तुओं के वाजिब दाम ग्राहकों से ले पाना कुम्हारों के लिए सिरदर्द हो चला है।  आधुनिक बाजार में उपलब्ध सस्ते चायनीज सामानों के सामने पारम्परिक वस्तुओं के प्रति खरीददारों का रूझान कम हो चला है।  कुम्हार का मिट्टी से दूर होना भारतीय परम्परा, संस्कृति और पर्वों से बढ़ती दूरियों का सूचक है। इसे समझते हुये छत्तीसगढ़ में  सरकार ने  कुम्हारों की पीड़ा को हरने और लुप्त होती परम्पराओं को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया है। यह एक अत्यंत ही शुभ संकेत है।  सरकार की ऐसी सोच को सफलता के मुकाम पर पहुंचाने की जिम्मेदारी आमजनों की भी है।   

मिट्टी का दीया मनुष्य को मिट्टी से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करता है। मिट्टी की महिमा को वह उजागर करता है। लेकिन नये जमाने का मनुष्य अपनी पुरानी परम्पराओं, रीति-रिवाजों से  दिन-ब-दिन दूरियां बढ़ाते हुए नीरसता और एकाकीपन के मकड़जाल में फंसता जा रहा है। ऐसे समय में मिट्टी के दीये और विद्युत चलित बल्बों से निर्मित झालर के बीच दीपावली की रात हो रहे संवाद का स्मरण आता है जो कि कुछ इस तरह हैं - ‘दीपावली की रात अपनी खूबसूरती की अकड़ दिखाते हुए झालर ने दीये से कहा - अरे मिट्टी का दीया आज के जमाने में तेरी पूछ परख नाममात्र को रह गई है। आने वाले समय में गांव गली और गरीब की झोपड़ी भी तुझे बाहर का रास्ता दिखा देंगे। मैं शहरों-महलों के साथ -साथ गांव और झोपड़ियों में भी सुशोभित होता नजर आउंगा।

झालर की ऐसी अकड़ भरी बात सुनकर मिट्टी का दीया हल्की सी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए बोला - झालर भाई, अकड़ को इतना पकड़ के मत रखों, क्योंकि इतिहास गवाह है कि अकड़ ने जिसे जकड़ा, उसका अंत बहुत ही बुरा हुआ है। वैसे भी इस बात को मत भूलों कि पूजा के समय, पूजा की थाली में ईष्वर के चरणों में मुझ मिट्टी के दीये को ही जगह मिलती है। यही मेरे लिए सबसे बड़ा मान-सम्मान है। तुम्हारी पूछपरख केवल विशेष अवसरों पर ही होती है। जबकि जन्म से लेकर मृत्यु संस्कार तक मेरा उपयोग मानव समुदाय सदैव पूज्य भाव से करता है।

मिट्टी के दीये की बात को व्यंग भरे अट्टहास से परे झटकते हुए झालर फिर गरजा - कहां पूजा की एक छोटी सी थाली और कहां गगनछूती इमारतों की छतें । बड़े-बड़े और ऊंचे-ऊंचे स्थानों पर मेरा साम्राज्य है। मेरे पसरते पांव को तुम जैसे तुच्छ दीये भला कैसे रोक पायेंगे ? झालर के इस उलाहना भरे बातों को सुन कर बड़ी षालीनता के साथ मिट्टी के दीये ने कहा - बंधु, झूठी शान की पट्टी तुम्हारी आंखों पर पड़ गई है, उसे उतार कर देखों। दुनिया में झूठी शान, घमंड और अहंकार में जीने वालों का विनाश ही हुआ है। इस बात को हमारे वेद, पुराण और बुजुर्गों ने भी हमें बताया है कि याद रखना कि ‘‘अहंकार में तीन गये धन, वैभव और वंष,  न मानो तो देख लो कौरव, रावण और कंस।’’

3. मिट्टी के दीये और झालर के बीच का यह संवाद झूठे शान में जीते मानव समुदाय के गाल पर एक करारा तमाचा है।  इस रात टिमटिमाते हुये हवा, आंधी से डरे बिना घने, घुप अंधकार को चीरने और जन-जन के बीच उजाला फैलाने का काम बेधड़क मिट्टी का दिया करता है। वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए मानव समुदाय को संदेष देता है कि - ‘मिट्टी का एक दिया सारी रात अंधेरे से लड़ता है, तू तो ईष्वर का बनाया हुआ है। हे मनुष्य तू किस बात से डरता है।अंत में एक संकल्प ‘‘चलो मिट्टी के दीये जलायें, प्रकृति, संस्कृति संरक्षण के साथ साथ कुम्हारों की जिंदगी में जगमगाहट लायें। छत्तीसगढ़ की मिट्टी का मान बढ़ाते कहें-

छत्तीसगढ़ की मिट्टी-छत्तीसगढ़ का दीया

छत्तीसगढ़ की खुरमी-छत्तीसगढ़ का मुठिया                                                  ....विजय मिश्रा अमित

 


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