छत्तीसगढ़ की चाय-कॉफी की खुशबू बिखर रही चहुं ओर:

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किसानों के लिए चाय-कॉफी की खेती बन रही बेहतर आय का जरिया



छत्तीसगढ़ राज्य अपनी धान की दुर्लभ प्रजातियों के लिए विश्व में
प्रसिद्ध है। बड़़े पैमाने पर धान की खेती होने के कारण राज्य को धान का
कटोरा कहा जाता है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर प्रदेश में नदियां, जंगल,
पहाड़ और पठार भी काफी भू-भाग में हैं। इनमें पठारी भूमि में धान का उत्पादन
नहीं हो पाने के कारण अर्थव्यवस्था में उनका योगदान सीमित हो गया था। इन
सबके बावजूद जशपुर जिले के पठारी क्षेत्र में चाय और बस्तर में कॉफी की
खेती ने संभावानाओं के नए द्वार खोले हैं। कृषि वैज्ञानिकों ने यहां की
जलवायु के अध्ययन के आधार पर संभावनाओं को नई दिशा दी है।



किसानों के लिए चाय-कॉफी की खेती बन रही बेहतर आय का जरिया 



मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की पहल से छत्तीसगढ़ शासन की तरफ से टी-कॉफी
बोर्ड गठन का फैसला इसी दिशा में अहम कदम है। जिसके तहत राज्य में 10-10
हजार एकड़ में चाय और कॉफी की खेती कराने का लक्ष्य तय किया गया है। जशपुर
जिला में चाय की खेती सफलतापूर्वक की जा रही हैं। यहां शासन ने जिला खनिज
न्यास, वन विभाग, डेयरी विकास योजना और मनरेगा की योजनाओं के बीच समन्वय
स्थापित करते हुए कांटाबेल, बालाछापर, सारुडीह के 80 एकड़़ भूमि में चाय
बागान विकसित हो रहे हैं।

कुछ साल बाद जब बागानों से चाय का उत्पादन शुरू होगा तो प्रति एकड़़ 2 लाख
रुपये सालाना तक का किसान लाभ कमा सकेंगे। यह धान की खेती से कहीं अधिक
लाभकारी साबित होगा। इसी तरह बस्तर के दरभा, ककालगुर और डिलमिली में कॉफी
की खेती विकसित हो चुकी है। यहां कॉफी की दो प्रजातियां अरेबिका और रूबस्टा
कॉफी लगाए गए हैं। बस्तर की कॉफी की गुणवत्ता ओडिसा और आंध्रप्रदेश के
अरकू वैली में उत्पादित किए जा रहे कॉफी के समान है। कॉफी उत्पादन के लिए
समुद्र तल से 500 मीटर की ऊंचाई जरूरी है। बस्तर के कई इलाकों की ऊंचाई
समुद्र तल से 600 मीटर से ज्यादा है जहां ढलान पर खेती के लिए जगह उपलब्ध
है।

100 एकड़ जमीन में कॉफी उत्पादन का प्रयोग सफल रहा है तथा बस्तर कॉफी नाम से
इसकी ब्रांडिंग भी हो रही है। उद्यानिकी विभाग किसानों को काफी उत्पादन का
प्रशिक्षण भी दे रहा है। चाय-कॉफी की खेती की विशेषता यह है कि इसके लिए
हर साल बीज नहीं डालना पड़़ता किसान कॉफी की खेती से हर साल 50 हजार से 80
हजार प्रति एकड़ आमदनी कमा सकते है। धान की तरह बहुत अधिक पानी की भी
आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल देखभाल करने की आवश्यकता रहती है।

वनोपजों के मामले में प्रदेश काफी आगे है तथा पठारी क्षेत्रों में चाय-कॉफी
के उत्पादन से ग्रामीणों के लिए रोजगार और अर्थाेपार्जन के नए अवसर सृजित
हो रहे हैं। सरकार की ओर से टी-कॉफी बोर्ड बनाने पहल को सही दिशा में उठाया
गया कदम माना जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कृषि वैज्ञानिकों के
अध्ययन के आधार पर सरकार की तरफ से हुई इस पहल के सार्थक परिणाम सामने
आएंगे और राज्य के किसानों और उद्यमियों की संपन्नता में चाय-कॉफी ताजगी
लाने का काम करेगी।


किसानों के लिए चाय-कॉफी की खेती बन रही बेहतर आय का जरिया



छत्तीसगढ़ राज्य अपनी धान की दुर्लभ प्रजातियों के लिए विश्व में
प्रसिद्ध है। बड़़े पैमाने पर धान की खेती होने के कारण राज्य को धान का
कटोरा कहा जाता है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर प्रदेश में नदियां, जंगल,
पहाड़ और पठार भी काफी भू-भाग में हैं। इनमें पठारी भूमि में धान का उत्पादन
नहीं हो पाने के कारण अर्थव्यवस्था में उनका योगदान सीमित हो गया था। इन
सबके बावजूद जशपुर जिले के पठारी क्षेत्र में चाय और बस्तर में कॉफी की
खेती ने संभावानाओं के नए द्वार खोले हैं। कृषि वैज्ञानिकों ने यहां की
जलवायु के अध्ययन के आधार पर संभावनाओं को नई दिशा दी है।



किसानों के लिए चाय-कॉफी की खेती बन रही बेहतर आय का जरिया 



मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की पहल से छत्तीसगढ़ शासन की तरफ से टी-कॉफी
बोर्ड गठन का फैसला इसी दिशा में अहम कदम है। जिसके तहत राज्य में 10-10
हजार एकड़ में चाय और कॉफी की खेती कराने का लक्ष्य तय किया गया है। जशपुर
जिला में चाय की खेती सफलतापूर्वक की जा रही हैं। यहां शासन ने जिला खनिज
न्यास, वन विभाग, डेयरी विकास योजना और मनरेगा की योजनाओं के बीच समन्वय
स्थापित करते हुए कांटाबेल, बालाछापर, सारुडीह के 80 एकड़़ भूमि में चाय
बागान विकसित हो रहे हैं।

कुछ साल बाद जब बागानों से चाय का उत्पादन शुरू होगा तो प्रति एकड़़ 2 लाख
रुपये सालाना तक का किसान लाभ कमा सकेंगे। यह धान की खेती से कहीं अधिक
लाभकारी साबित होगा। इसी तरह बस्तर के दरभा, ककालगुर और डिलमिली में कॉफी
की खेती विकसित हो चुकी है। यहां कॉफी की दो प्रजातियां अरेबिका और रूबस्टा
कॉफी लगाए गए हैं। बस्तर की कॉफी की गुणवत्ता ओडिसा और आंध्रप्रदेश के
अरकू वैली में उत्पादित किए जा रहे कॉफी के समान है। कॉफी उत्पादन के लिए
समुद्र तल से 500 मीटर की ऊंचाई जरूरी है। बस्तर के कई इलाकों की ऊंचाई
समुद्र तल से 600 मीटर से ज्यादा है जहां ढलान पर खेती के लिए जगह उपलब्ध
है।

100 एकड़ जमीन में कॉफी उत्पादन का प्रयोग सफल रहा है तथा बस्तर कॉफी नाम से
इसकी ब्रांडिंग भी हो रही है। उद्यानिकी विभाग किसानों को काफी उत्पादन का
प्रशिक्षण भी दे रहा है। चाय-कॉफी की खेती की विशेषता यह है कि इसके लिए
हर साल बीज नहीं डालना पड़़ता किसान कॉफी की खेती से हर साल 50 हजार से 80
हजार प्रति एकड़ आमदनी कमा सकते है। धान की तरह बहुत अधिक पानी की भी
आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल देखभाल करने की आवश्यकता रहती है।

वनोपजों के मामले में प्रदेश काफी आगे है तथा पठारी क्षेत्रों में चाय-कॉफी
के उत्पादन से ग्रामीणों के लिए रोजगार और अर्थाेपार्जन के नए अवसर सृजित
हो रहे हैं। सरकार की ओर से टी-कॉफी बोर्ड बनाने पहल को सही दिशा में उठाया
गया कदम माना जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कृषि वैज्ञानिकों के
अध्ययन के आधार पर सरकार की तरफ से हुई इस पहल के सार्थक परिणाम सामने
आएंगे और राज्य के किसानों और उद्यमियों की संपन्नता में चाय-कॉफी ताजगी
लाने का काम करेगी।

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